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सिद्धपीठ सुरकंडा देवी जहाँ पूरी होती है हर मनोकामना

 देवभूमि उत्तराखंड जहाँ कण कण में बसते हैं भगवान।  एक तरफ जहाँ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिये विश्वविख्यात है उत्तराखंड वहीं दूसरी ओर धर्म एवं आस्था के नजरिये से भी उत्तराखंड का एक विशिष्ट स्थान है।

©amarujala.com

कल कल करती बहती हुई नदियाँ मानो ये संदेश दिये जाती हों कि जीवन मे हर घड़ी आगे बढ़ते चलो चाहें वक़्त अच्छा हो या बुरा अपने पथ से कभी पीछे ना हटो। वहीं बड़े बड़े विशालकाय पहाड़ मानो हँसते हुए हमसे कह रहें हो कि जीवन मे स्थिति कैसी भी हो, पर हमेशा अपने धर्म पर कायम रहो और अपने विश्वास को इन पहाड़ों की तरह अडिग रखो। यकीन मानिये अगर कहीं भी स्वर्ग होगा तो जरूर उत्तराखंड जैसा ही होगा।

यूं तो हरे भरे पहाड़ों और ठंडी सुगंधित हवा से महकता हुआ पूरा उत्तराखंड ही बहुत खूबसूरत है पर फिर भी उत्तराखंड में पहाड़ों पर बसे छोटे बड़े मंदिर और दूर दराज जहाँ जाना भी आसान नही वहाँ मंदिरों का होना यहां के लोगो की भगवान के प्रति अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक है। 

उत्तराखंड के टिहरी जनपद में चम्बा-मसूरी मोटरमार्ग पर  सुरकुट पर्वत पर स्थित सिद्धपीठ माता सुरकंडा देवी का मंदिर एक तरफ जहां अपनी मनोहर खूबसूरती के लिये प्रसिद्ध है वहीं दूसरी ओर यहां आने वाले भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने के लिये भी हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है। साल भर ना केवल भारत से ही बल्कि विदेश से आये हुए सैलानियों का भी यहां तांता लगा रहता है।समुद्रतल से लगभग 10000 फिट ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर ऐसा प्रतीत होता है मानो आसमान से गले मिल रहा हो। चारों तरफ से देवदार और चीड़ के पेड़ों से भरे हुए हरे भरे पहाड़ यहां की खूबसूरती को दुगना किये देते हैं।

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पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राजा दक्ष ने  कनखल में वैदिक यज्ञ का अनुष्ठान किया किन्तु भगवान शिव को निमंत्रण न देकर उनका अपमान किया तब राजा दक्ष की पुत्री और भगवान शिव की धर्मपत्नी सती ने वहां जाकर भगवान शिव को निमंत्रण ना देने का कारण पूछा तो राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव के किये हुए अपमान से क्रुद्ध होकर माता सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राण दे दिए।जिससे भगवान शिव अशांत और क्रुद्ध होकर माता सती के नशवर शरीर को अपने त्रिशूल में टांगकर चारों दिशाओं में घूमने लगे। तब भगवान शिव को शांत करने के लिये भगवानी श्री हरि विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के नशवर शरीर के टुकड़े कर दिये और वो टुकड़े इस धरती पर जहां जहां गिरे वहां वहां देवी के शक्तिपीठ या सिद्धपीठ बने। इस तरह 51 शक्तिपीठों की उत्पत्ति हुई। 

इन्ही 51 शक्तिपीठों की उत्पत्ति के समय सुरकुट पर्वत पर माता सती का सिर गिरा इसलिये ये सिद्धपीठ सुरकंडा देवी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।वैसे तो पूरे साल ही यहां भक्तों का जमावड़ा लगा रहता है फिर भी मई और जून में गंगा दशहरा के समय यहां विशेष मेले का आयोजन होता है जिसमे दूर दूर से भक्तजन आते हैं और माँ सुरकंडा का आशीर्वाद पाते हैं। कहा जाता है कि यहां देवी सुरकंडा के दर्शन मात्र से कई पापों का नाश हो जाता है और भक्तों की सभी मनोकामना पूरी होती है। 

यहां आपको हर दिन दूर दूर के गांव से आये हुए भक्तजनो के समूह देखने को मिल जाएंगे जो कि ढोल नंगाड़े ,शंख,घँटी आदि से देवी सुरकंडा का पूजन करते हैं और माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ये आस्था और विश्वास यूं ही नही है, पहाड़ की विषम परिस्थितियों में भी यहां के लोगों की संकटों से रक्षा करने वाली भी माता सुरकंडा ही है।

माता सुरकंडा आप सभी के जीवन मे बहुत सारी खुशियाँ लाये इसी मंगल कामना के साथ। जय माता दी।


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